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सदा वत्सले मातृभूमे

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5371
आईएसबीएन :0000

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भारत की मातृभूमि का वर्णन...

Sada Vatsale Matrabhoome

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सदा वत्सले मातृभूमे !

मातृभूमि से अभिप्राय हिमालय पर्वत, गंगा-यमुना इत्यादि नदियाँ, पंजाब, सिंध, गुजरात, बंगाल इत्यादि भू-खंड नहीं, वरन् यहीं की समाज है। अतः देश-भक्ति वस्तुतः समाज की भक्ति को कहते हैं।
भारत भूमि की जो विशेषता है, वह इस देश में सहस्रो-लाखों वर्षों में उत्पन्न हुए महापुरुषों के कारण है; उन महापुरुषों के तप, त्याग, समाज-सेवा तथा बलिदान के कारण है; उनके द्वारा दिए ज्ञान के कारण है।

प्रकाशकीय


नमस्ते !
सदा वत्सले मातृभूमे !
पतत्वेष कायः त्वदर्थे !!

हे वत्सलमयी मातृभूमे ! तुम्हें नमस्कार करता हूँ। यह शरीर तुम्हारे निमित्त अर्पित है।
यह तो स्पष्ट हो चुका है कि हिंदू संस्कृति, हिंदू मान्यताओं तथा भारतीय ज्ञान-विज्ञान को नष्ट-भ्रष्ट करने के लिए अंग्रेजों ने षड्यन्त्र रचे। अंग्रेजों ने देखा था कि एक हज़ार साल तक गुलाम रहते हुए भी हिन्दू ने अपनी स्वतंत्रता प्राप्ति करने का प्रयास नहीं छोड़ा। अंग्रेजों के काल में तो आंदोलन अति उग्र हो गया था। यहाँ तक कि आंदोलन इंग्लैंड की भूमि तक पहुंच गया था।

यह इस कारण संभव हुआ क्योंकि हिंदुओं का अपनी संस्कृति, धर्म तथा ज्ञान-विज्ञान की श्रेष्ठता पर विश्वास स्थिर था। अंग्रेजों ने अनुभव किया कि हिंदुओं के मन से यह श्रेष्ठता समाप्त किए बिना आंदोलन दबाया नहीं जा सकता।
अंग्रेजों द्वारा सबसे विनाशकारी षड्यन्त्र था कांग्रेस की स्थापना। कांग्रेस की सदस्यता के लिए एक शर्त रखी गई थी कि वह अंग्रेजी शिक्षित होना चाहिए। और अंग्रेजी शिक्षा का उद्देश्य था हिंदुओं को अपने धर्म से विमुख करना।
अंग्रेजी शिक्षा के विषय में, भारत में अंग्रेजी शिक्षा आरंभ करने वाले मैकॉले ने अपने पिता को लिखे पत्र में कहा था-अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं जो सत्य हृदय से अपने मज़हब पर आरूढ़ हो।

कांग्रेस के संस्थापक ह्यूम का आशय यह था कि हिन्दुस्तान की राजनीति की बागडोर उन लोगों के हाथ में हो, जो यदि भारत को स्वतंत्रता देनी पड़े, तो हिंदू संस्कृति, हिंदू मान्यताओं तथा ज्ञान-विज्ञान को भ्रष्ट करते रहें। अंग्रेज समझता था कि अंग्रेजों का प्रभाव इस प्रकार चिरकाल तक बना रहेगा।
कांग्रेस ने यही किया। इतिहास साक्षी है कि भारतीय जनता के साथ विश्वासघात किया गया। देश की हत्या अर्थात् भारत विभाजन को माना, जिसके कारण लाखों व्यक्ति मारे गए, करोड़ों बेघर हुए, अरबों-खरबों की सम्पत्ति नष्ट हुई। इतना ही नहीं राजनीति स्वतंत्रता प्राप्त करके भी बौद्धिक तथा मानसिक दासता में भारतवासी जकड़े गए। आज का भारत उस शिक्षा के परिणामस्वरूप पाश्चात्य रंग में रँगा हुआ है। नास्तिक्य का बोलबाला है। भारतीय ज्ञान-विज्ञान की बात करो तो भारतवासी बिदक उठते हैं।

समाज में यह सामाजिक, मानसिक, राजनीतिक परिवर्तन किस प्रकार आया, इसका युक्तियुक्त वर्णन तथा विश्लेषण श्री गुरुदत्त के उपन्यासों में हमें मिलता है। इस दृष्टि से उनके निम्न उपन्यास उल्लेखनीय हैं—ज़माना बदल गया, दो लहरों की टक्कर, न्यायाधिकरण।
प्रथम उपन्यास ‘सदा वत्सले मातृभूमे’ 1945 से 1952 तक की पृष्ठभूमि पर लिखे गए उपन्यासों की श्रृंखला में हैं-‘विश्वासघात’, ‘देश की हत्या’, ‘दासता के नये रूप’ तथा ‘सदा वत्सले मातृभूमे !’
लेखक का मत है कि हिंदू विरोधी राजनीति के दुष्परिणाम को मिटाने के लिए घोर प्रयत्न करना पड़ेगा। तब ही हम वत्सलमयी मातृभूमि (भारत माता) के ऋण से उऋण हो सकेंगे।

इसमें संदेह नहीं कि उपर्युक्त चार उपन्यासों में इतना स्पष्ट राजनीतिक घटनाओं का सजीव चित्रण एवं रोमांचकारी वर्णन, विश्लेषण कोई भी अन्य लेखक प्रस्तुत करने का साहस नहीं कर सका था।
हमें विश्वास है कि प्रत्येक देशभक्त, भारत माता का पुजारी इन उपन्यासों को गंभीरतापूर्वक पढ़कर प्रेरणा प्राप्त कर सकेगा। ये उपन्यास बार-बार पढ़ने योग्य हैं तथा किसी भी निजी अथवा सार्वजनिक पुस्तकालय की शोभा बन सकते हैं। आपके पुस्तकालय में इन पुस्तकों की उपस्थिति आपकी जागरुकता का परिचय देगी।

-प्रकाशक

प्रथम परिच्छेद


किसी गतिशील पत्थर की गति की दिशा बदलने के लिए शक्ति उतनी ही बलवान् होना चाहिए जितना पत्थर का भार हो। इसी प्रकार जड़ को सन्मार्ग दिखाने के लिए आघात उतना ही प्रबल होना आवश्यक है, जितना मन का जड़त्व हो।
चंद्रमोहन के मन को उसकी बहन के देहांत और उसकी प्रेमिका प्रमिला के किसी अन्य से विवाह कर लेने का आघात इतना प्रबल हो गया कि उसके मूढ़ मन की दिशा बदलने में सफल हो गया।
प्रमिला के विवाह से उसके मन को वह धक्का पहुँचा कि वह कम्युनिस्ट पार्टी से घूमा और पक्का ‘कैपिटलिस्ट’ बन गया। उसके मन में धन कमाने की लालसा जाग पड़ी; किसी से दान-दक्षिणा लेकर अथवा धोखा-धड़ी करके नहीं वरन् ईमानदारी से प्रयत्न कर, प्रयत्न के फल को विस्तार कर देने से।

प्रमिला के विवाह के भोज में वह सम्मिलित हुआ था और भोज से लौट, रात पलंग पर लेटे-लेटे वह मन में कामना करने लगा कि वह भी अपने परिश्रम से धन संचय करेगा और मोटर गाड़ी स्वयं चलाते हुए धनी प्रतिष्ठित समाज में अपना स्थान बनाएगा।
उसके पिता मुकुटबिहारी माथुर ने एक दिन कहा था, ‘‘बरखुरदार ! तुम लॉ-कॉलेज में प्रवेश ले लो और अपने में कुछ अर्जन करने की योग्यता उत्पन्न करो।’’
पलंग पर लेटे-लेटे पिता के इस वाक्य को स्मरण कर, वह उसके अनुरूप योजना बनाकर ही सो सका। परंतु लॉ-कॉलेज के दाखिले हो चुके थे और उसे इसके लिए एक वर्ष तक प्रतीक्षा करनी पड़ी।
इसके डेढ़ वर्ष उपरांत एक सांयकाल चाय लेने जब वह घर पहुंचा तो उसके हाथ में मोटी-सी कानून की एक पुस्तक और एक नोटबुक थी। चंद्र ने पुस्तक और नोट-बुक ड्राइंगरूम में पड़ी साइड-टेबल पर रखी और पिता के समीप कुर्सी पर बैठ, सैंटर-टेबल पर रखे एक खाली प्याले में अपने लिए चाय बनाने लगा।

इस नित्य से विलक्षण व्यवहार को देख पिता ने पुत्र की ओर देखते हुए पूछ लिया, ‘‘कहाँ से आ रहे हो, चंद्र ?’’
चंद्र ने प्याले में से सरुकी लगाते हुए कहा, ‘‘पिताजी ! कॉलेज में भर्ती हो गया हूँ।’’
‘‘गुड ! किस कॉलेज में ?’’
‘‘लॉ-कॉलेज में।’’
‘‘प्रार्टी के मुकदमें करने के लिए ?’’

‘‘वह भी, यदि उन्होंने देने चाहे और सामान्य जनता के भी।’’
‘‘देखो चंद्र !’’ पिता ने गंभीर भाव से कहा, ‘‘जो कुछ लॉ-कॉलेज में पढ़ाया जाता है, उसका आधार भारतीय ज्यरिस्प्रूडेंस से बहुत अंशों में भिन्न है। मैं भारतीय ज्यूरिस्प्रूडेंस को पढ़कर और उसको भली-भाँति मन में बैठाकर ही अपने ‘प्रोफेशनल’ में सफल हुआ हूँ। वह है—‘‘न्याय दर्शन’। इस ग्रन्थ का किसी विद्वान् के चरणों में बैठ अध्ययन करने से ही तुम एक सफल वकील बन सकोगे।’’
‘‘यह कौन-सी पुस्तक है और कहाँ मिलती है ?’’

‘‘मिल तो किसी भी दुकान से सकेगी, परंतु ग्रंथ संस्कृत भाषा में है। इसके लिए उस भाषा का अध्ययन करना होगा। वह ग्रंथ किसी न्याय के आचार्य से पढ़े बिना समझ नहीं सकोगे। मुझे भी इस ग्रंथ को पढ़ने और समझने में दो वर्ष लगे थे। इसको पढ़ हृदय में बैठाने के उपरांत ही मैं मुकदमे जीतने लगा और मेरी प्रैक्टिस बढ़ने लगी थी। अब मैं शिमला हाईकोर्ट और यहाँ के सुप्रीम कोर्ट में अपनी विद्वता की धाक जमा रहा हूँ।’’
‘‘आप किस आचार्य से पढ़े हैं ?’

‘‘वह अब दिल्ली में नहीं रहते। यहाँ के तौर-तरीके देख अपने गाँव सुकेत मंडी में जाकर रहने लगे हैं।’’
‘‘पिताजी ! उनका पता दीजिए। मैं उनसे संपर्क बनाने का यत्न करूँगा।’’
यह वार्तालाप चाय पीते-पीते हुआ था। माथुर के ग्राहक उसकी बैठक में उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। इस कारण चाय समाप्त करते ही वह उठा और अपनी बैठक में चला गया।


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